हासिल-ए-ज़िन्दगी 🔸हसरतों के सिवा और कुछ भी नहीं,
ये किया नहीं, वो हुआ नहीं, ये मिला🔸 नहीं, वो रहा नहीं।
ऐ ज़िन्दगी, तोड़🔸 कर हमको ऐसे बिखेर दे इस बार,
न फिर से टूट पायें हम, और न फिर🔸 से जुड़ पाए तू।
ज़िन्दगी लोग जिसे 🔸मरहम-ए-ग़म जानते हैं,
जिस तरह हम ने गुज़ारी है वो हम 🔸जानते हैं।
छोड़ ये बात🔸 कि मिले ज़ख़्म कहाँ से मुझको,
ज़िन्दगी इतना बता कितना 🔸सफर बाकी है।
अब समझ लेता 🔸हूँ मीठे लफ़्ज़ों की कड़वाहट,
हो गया है ज़िन्दगी का तजुर्बा 🔸थोड़ा थोड़ा।